ठंण् का मौसम धना कुहरा ओस की बुदे मानो जैसे बारीस हो रही हो चारे तरफ धुंध ही धुंध कुछ भी दिखई देने को राजी नही पर क्या करे जाना तो है हि जनाब ये निकला हुआ पेट ये मोटा सा भद़दा मेढक जैसा शरीर  अपने को भले ही बोझ लगे पर  दुसरो के उपर ये बोझ हमे देखा ही नही जा रहा था क्यो कि कई लोगो ने हमसे से बार बार कह रहे थे कि क्या बे हलवाइ की बिटीया की तरह क्यो फैलते जा रहे हो अभी ये उमर है पेट निकलने कि और सच बात तो ये है कि मेरे को भी कभी कभी खुद की शरीर अच्छा नही लगता था सो मैने भी कर दी शुरू कर दी व्ययाम और शुबह की सैर और हमारे पिता जी हमेशा से कहते आये है कि शुबह उठो और थोडा सा सैर करो तो दिन अच्छा बितता है पर उनको क्या पता कि यहा रात दो बजे से पहले सोता कौन है भले ही पुरी समय पढाई हो या नहाे पर पर दो बजे से पहले निद कहा आनी है और सच तो यह है कि खना पीना बनाते खाते बज गये दो थोडी बकैती थोडी सी पढाई हुयी ही की नही बज गये रात के दो फिर होना क्या हो गये लुल। और होत शुबह के पाच बजे ये ठंण् का पहरा ओस की चादर धुध की रूकावट इन सरी यातनओ से जुझते हुए ग्राउन् पर जाना आब मै क्या बताउ मानो मै इलाहाबाद मे नही ग्लैशियर मे हू पर क्या करें सवाल अपने को फिट करने का है दुसरो के बोझ को हल्का भी करने का है  इन सरी यातनाओ को जब मै झेलते हुए ग्रउन् पर पहुचता हु तो पता चलता है कि वहा तो और भी लाेग हमसे पहले पहुचे है तब थेडी सी सहस रूपी गरमी मेरे अन्दर आती है और धीरे धीरे ठंण् का पहरा ओस की चादर धुध की रूकावट को टोडती चली जाती है

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