जैसे जैसे हम बड़े होते चले जा रहे है, वैसे वैसे हम अपने बचपन की यादों को संजोने में लगे है। बचपन का वो सारा खेल खिलौने यहा तक की त्योहार मनाने के तरीके को भी। त्योहार आते ही हमारे मन मे एक उमंग सा फूटने लगता था। खास तौर पर राष्ट्रीय त्योहार आते ही, हम अपने स्कूलों मे होने वाले प्रोगाम के बारे मे सोचने लगते थे कि इस बार के गणतंत्र दिवस पर कौन सा गाना गाना है या कौन सा भाषण देना है, और चोरी छिपे ये पता जरूर लगाते थे कि स्कूल में इस साल मिठाई में क्या बटने वाला है, लड्डू, जलेबी अथवा बतासा। चाहे जो भी मिले पर मेरी मम्मी कभी खूश नही हुआ करती थी कहती थी कि इतने गुरू जी पैसे लेते है और एक जलेबी पकड़ा देते है।
अब त्योहार आते है, चले जाते है। हमे पता ही नही चलता या हम ये सोचते है कि हम इतने बडे हो गये है कि हम बचपन वाली हरक्कते नही कर सकते।
आजदी के 66वे गणतंत्र दिवस पर हमारी नींद शुबह 9 बजे खुली तो पडोसी के यहां गाना बज रहा था,,,,,,,,,, दिल दिया है जान भी देगे ऐ वतन तेरे लिए,,,,,,,,,'' फिर मैने सोचा कि क्या है आज,,,,,, अरे ,,,,,26 जनवरी आज तो है। फिर से रजाई ओढ कर पेट के बल लेट लिया और बचपन के यादो में चला गया और सोचने लगा कि वो एक दिन था कि इतने बजे तक हम झंण्डा फहरा कर मिठाई के लिए लाइन में लगे रहते थे। मिठाई से याद आयी 'जलेबी' जलेबी खा रहे है। फिर जगदीश सिंह कि गजल याद आयी ' वो दौलत भी ले लो वो शोहरत भी ले लो, भले छीन तो मुझसे मेरी जवानी मगर मुझको लौटा दो बचपन का सावन वो कागज की कश्ती वो बारीश का पानी,,,,,,,,,,,' चलो आज बचपन की कुछ यादो से जुडते है यही सोच कर फटाफट नहा धुल कर तैयार हो कर गाड़ी लेकर निकल लिए। पहुच गये सीधे मिठाई कि दुकान पर, दो किलो जलेबी का आर्डर दे दिया। इतने में वही पास के एक दुकान पर से कुछ झंण्डे भी खरीद लिया और उन झंण्डो पर एक कर के चौकलेट भी स्टेपल करवा दिया। मिठाई और झंण्डे लेकर वापस अपने रूम की तरफ चला। रास्ते मे मेरी दो स्टूडेंट मिली वो स्कूल से लौट रही थी। वो मेरे को गणतंत्र दिवस कि शुभ काममना दी मै उनकों एक झंण्डा पकडा दिया। एक एक कर के जो भी मिलता गया सबको पकड़ाता गया। अन्तत: अपने रूम पर पहुच गया जहां पर मेरे साथ रह रहे कई स्टूडेंन्ट थे। जलेबी का एक पैकेट मकान मालिक को पकडाते हुए उपर वाले कमरे मे गया और सब लोग मिल कर पूरे जलेबी खाये और हर जलेबी में वो बचपन की जलेबी का स्वाद ढूढ रहे थे पर कही भी किसी जलेबी मे वो स्वाद नही मिला।
अब त्योहार आते है, चले जाते है। हमे पता ही नही चलता या हम ये सोचते है कि हम इतने बडे हो गये है कि हम बचपन वाली हरक्कते नही कर सकते।
आजदी के 66वे गणतंत्र दिवस पर हमारी नींद शुबह 9 बजे खुली तो पडोसी के यहां गाना बज रहा था,,,,,,,,,, दिल दिया है जान भी देगे ऐ वतन तेरे लिए,,,,,,,,,'' फिर मैने सोचा कि क्या है आज,,,,,, अरे ,,,,,26 जनवरी आज तो है। फिर से रजाई ओढ कर पेट के बल लेट लिया और बचपन के यादो में चला गया और सोचने लगा कि वो एक दिन था कि इतने बजे तक हम झंण्डा फहरा कर मिठाई के लिए लाइन में लगे रहते थे। मिठाई से याद आयी 'जलेबी' जलेबी खा रहे है। फिर जगदीश सिंह कि गजल याद आयी ' वो दौलत भी ले लो वो शोहरत भी ले लो, भले छीन तो मुझसे मेरी जवानी मगर मुझको लौटा दो बचपन का सावन वो कागज की कश्ती वो बारीश का पानी,,,,,,,,,,,' चलो आज बचपन की कुछ यादो से जुडते है यही सोच कर फटाफट नहा धुल कर तैयार हो कर गाड़ी लेकर निकल लिए। पहुच गये सीधे मिठाई कि दुकान पर, दो किलो जलेबी का आर्डर दे दिया। इतने में वही पास के एक दुकान पर से कुछ झंण्डे भी खरीद लिया और उन झंण्डो पर एक कर के चौकलेट भी स्टेपल करवा दिया। मिठाई और झंण्डे लेकर वापस अपने रूम की तरफ चला। रास्ते मे मेरी दो स्टूडेंट मिली वो स्कूल से लौट रही थी। वो मेरे को गणतंत्र दिवस कि शुभ काममना दी मै उनकों एक झंण्डा पकडा दिया। एक एक कर के जो भी मिलता गया सबको पकड़ाता गया। अन्तत: अपने रूम पर पहुच गया जहां पर मेरे साथ रह रहे कई स्टूडेंन्ट थे। जलेबी का एक पैकेट मकान मालिक को पकडाते हुए उपर वाले कमरे मे गया और सब लोग मिल कर पूरे जलेबी खाये और हर जलेबी में वो बचपन की जलेबी का स्वाद ढूढ रहे थे पर कही भी किसी जलेबी मे वो स्वाद नही मिला।
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