समाज में हर एक इंसान को बराबर का दर्जा हासिल है, वहीं इंसान को इंसान समझने की सोच जैसे धीरे-धीरे पीछे छूटती जा रही है और इंसानियत दम तोड़ती नजर आ रही है, जिसके चलते लगातार सामाजिक मूल्यों का पतन हो रहा है। इंसानियत वो जज्बा है जो इंसान को बुलन्दियों तक ले जाती है लेकिन आज लोग इसे वाकई भूलते नजर आ रहे है यदि इंसानियत ही नही रहेगी तो भला समाज में सुधार वैâसे होगा, क्योंकि समाज बेवजह का मौत के खेल को खेल रहा है। जिसे प्यार और दोस्ती ने और भी आसान बना दिया है, वहीं इस अंधे खेल का नतीजा भी लगातार भयावह होता जा रहा है मनुष्य के भीतर दिमाग में पलने वाले इस कीड़े का इलाज दुनियां में कहीं पर भी संभव नही है। जिसके चलते व्यक्ति स्वयं को समाप्त कर लेता है वही दूसरी ओर उसकी इन्हीं हरकतो की वजह से हंसते खेलते जिवन में ऐसी आग लग जाती है जिसका बुझ पाना संभव नही है- जी हाँ- ये कीड़ा है दोस्ती, प्रेम और फिर शक जिसकी वजह से कई ऐसी घटनाओं ने जन्म लिया जिसके चलते कई रिश्तों में विद्रोह हुआ । मानव स्वभाव ने, चाहे वो पुरूष हो या महिला अगर ये अपनी इस मानसिकता का त्याग नहीं करेंगे तो रिश्तों में लगी आग कभी भी बुझने का नाम नहीं लेगी।
ये बीमारी धीरे-धीरे आम होती जा रही है जिसकी वजह से लोग जहाँ टेंशन में अपनी जिन्दगी जीने को मजबूर हैं वही कुछ ऐसे भी है जो लगातार तनाव को बर्दाश्त नहीं कर पाये और उनके हाथों से जिन्दगी की डोर फिसल गई। जबकि जिन्दगी को शानदार तरीके से जीने की कोशिश होनी चाहिये, कोशिश हमेशा मानवीय और रक्त सम्बन्धों को बचाने की होनी चाहिये न कि इसकी हत्या करने की, क्योंकि जिन्दगी बार-बार पलट कर नहीं आती है बल्कि ये महज कुछ सालों की ही होती है, इसीलिए जिन्दगी को प्यार मोहब्बत के साथ पुâल इन्ज्वाय करके जीना चाहिए न कि शक के कीड़े को दिमाग में डाल कर, क्योंकि प्रेम और दोस्ती को व्यक्त करने के लिए किसी मापदण्ड का निर्धारण उचित नहीं है । हमारे रिश्ते जहाँ छोटे होते जा रहे हैं वही जाति भी हम पर कहीं न कहीं हावी होती जा रही है। जिस समाज की स्थापना विकास के लिए हुई थी वो समाज और इसके तथाकथित ठेकेदारों के चलते हमारा अहम इतना विशाल हो गया है कि आज हम अपनो की खुशी के लिए थोड़ा भी झुकने को तैयार नही हैं और हम वहीं अपनाते है जो समाज में चल रहा होता है। शायद इन्हीं सब वजहों से पवित्र समझा जाने वाला 'दोस्ती और प्रेम ' आज नई तस्वीर के रूप में उभर रहा है। आज 'दोस्ती और प्रेम ' एक अनुभूति से हटकर एक स्टेट्स की बातो में तब्दील हो गया है। मानसिक प्रेम से अलग दैहिक प्रेम की तस्वीर साफतौर पर आज के परिवेश में उभर कर सामने आ रही है, इसका सबसे बड़ा उदाहरण 'लिव इन रिलेशन' के रूप में है, जिसमें दैहिक आकर्षण तो है परन्तु 'प्रेम' की आत्मीय अनुभूति दूर-दूर तक नजर नही आती है। इसमें विचारों की उड़ानें तो है पर मानसिक रूप से इसका स्थायित्व नहीं  है, आर्थिक अपेक्षाएं तो बहुत हैं पर त्याग की भावना नहीं है, जबकि सही रूप मेें देखा जाय तो 'दोस्ती और प्रेम ' जीवन की नीरसता को दूर करने का एक अच्छा माध्यम है और यदि मनुष्य अपने शक्की दिमाग में 'शक' के कीड़े को पालता है तो सिर्पâ रिश्तों में बिखराव की स्थिति पैदा हो जाती है। फिर इसके चलते महिला या पुरूष जो कृत्य कर बैठते हैं उसका  अंजाम काफी खतरनाक होता है। बाद मेंं सिर्पâ पछतावे के अलावा और कुछ हाथ नहीं लगता है।
चिंता ऐसी दाकिनी काटि करेजा खाय,
वैद्य बिचारा क्या करें कहाँ तक दवा लगाये।।

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