अब न मिट्टी के खिलौनों की मांग है ना भोज एवं दावतों में मिट्टी के कुल्हड़ का प्रचलन। दीपावली पर मिट्टी के दीये बस नाम मात्र को जलते है। कच्चे मकानों पर नक्काशीदार नरिया और थपुआ का स्थान आयरन व स्टील की चादरों ने ले लिया है। ऐसे में कुम्हारो की रोजी रोटी का सहारा नहीं रहा उनका चाक जिसे कबीर के दर्शन में कभी खास मुकाम हासिल था। आधुनिकता ने इस वर्ग की कला को निगल लिया है। इस कला के माहिर अब बुजुर्ग ही बस चाक और आंवा से जुडे़ है। युवा वर्ग ने रोजी-रोटी के अन्य विकल्प अपना लिया है। ऐसे में यह कला अब विलुप्त होने की कगार पर आ पहुंची है।
कभी हर कुम्हार परिवार के लिए उसका क्षेत्र या गांव के अन्य वर्ग के परिवारों की संख्या नियत थी। इन परिवारों को मिट्टी से बने बर्तनों की जरूरत उनसे जुड़ा कुम्हार परिवार ही करता था। शादी विवाह या दावत के अन्य प्रयोजनों की सर्वप्रथम सूचना गांव के कुम्हार को दी जाती थी। दिन-रात एक कर कुल्हड़ बनता था। मेलों में मिट्टी के खिलौनों की अच्छी बिक्री होती थी। कुम्हार को भी दीवाली का बेसब्री से इंतजार रहता था। गांव में खपरैल मकान बनाने के लिए नरिया एवं थपुआ की भी मांग बराबर बनी रहती थी। आज आधुनिकता ने मिट्टी के प्रत्येक बर्तन की मांग को समाप्त कर दिया है। आज भी इस पेशे से जुड़े प्रजापति समुदाय के लोग कहते है कि अब तो बस शारदीय एवं चैत्र नवरात्रि पर ही कुछ घड़े एवं अन्य बर्तन बिकते है। कहते है कि चाक के सहारे परिवार का गुजारा नामुमकिन है। यही कारण है कि इस पुश्तैनी पेशे को युवा छोड़ रहा है।

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