जब मै अपने बचपन की दुनिया की तुलना आज की दुनिया से करता हूँ, तब सबसे पहले इस बात की ओर घ्‍यान जाता है कि, उस दुनिया में किसी व्‍यक्ति के सफल या विफल होने की बात कहीं सुनने में नहीं आती थी। जबकि इस दुनिया में हर कहीं सफलता विफलता की ही चर्चा है। उस दुनिया में सफलता की बात भी नही की जा सकती थी क्‍याकि सफल होने का मतलब नीचे से ऊपर उठ जाना है और भयंकर ऊॅचनीच वाले उस सामन्‍ती समाज में किसी भी इन्‍सान के लिए अपने खानदान और अपनी जात बिरादरी की हैसियत से ऊपर उठ सकना लगभरग  असम्‍भ था। हर बिरादरी में किसी इन्‍सान का महत्‍व उसकी बुजुर्गियत से आका जाता था। और किसी भी परिवार में सबसे बडा बेटा ही सबसे महत्‍वपूर्ण हो सकता था दूसरे शब्‍दों में कहें तों उस दुनिया में जिसे जो भी महत्‍व मिलना होता था वह एक तरह से जन्‍म से ही मिल जाता था। सामाजिक बन्‍धनों के कारण उस दुनिया में योग्‍य और कुशल व्‍यक्ति भी न बहुत आगे बढ सकते थे और न बहुत ऊचे उठ सकतें थे। जाहिर है कि वह नाइन्‍साफी वाली बात थी। आधुनिकता ने 20 वीं सदी में इन्‍सान के पाव में पडी सामान्‍ती बेडियां तोड कर और हर वयक्ति को ज्‍यादा से ज्‍यादा आगे बढने का मौका देकर निश्‍च्‍य ही एक बहुत  बड़ा काम किया । लेकिन हैरानी यह है कि 20 वी सदी के आरम्‍भ में हर कहीं यह देखा जा रहा हैं कि सफलता की होड में लगे हुए अधिकतर लोग कभी न कभी किसी न किसी हद से अपने को विफल पा रहे हैं और इसलिए दुखी और असन्‍तुष्‍ट हो रहे है। यही नही, हर समाज में ऐसे लोगों की तादाद तेजी से बढती चली जा रही है, जो अपने काम को अपने आस-पास को सर्वथा महत्‍वहीन पाते है। लोगो का रहन सहन का स्‍तर पहले से कही उँचा हो गया है। लेकिन हर कोई अपने को अभावग्रस्‍त समझ रहा है और, कुछ और पाने की कोशिश में लगा हुआ है। मेरे बचपन  की दुनिया आप के मानको के अनुसार भयंकर अभावों में जीने वाली और सर्वथा महत्‍वहीन लोगो की दुनिया थी।  मै कह रहा था कि मेंर बचपन की दुनिया के महत्‍वहीन इन्‍सान भी न जाने क्‍यो अपने को महत्‍वपूर्ण समझतें थे इसकी एक वजह तो शायद यह थी कि अमानवीय उँच नीच वाले उस समाज में हर किसी की एक खास जगह नियत थी हर किसी का एक खास दायित्‍व था और उस जगह और उस दायित्‍व को ही शोषण  करने के इरादे से ही महत्‍वपूर्ण ठहराया जाता था। हर जात बिरादरी के अपने अपने खास त्‍योहार और खास मिथक थे और साल में एक ही सही हर जाति के वयक्तियाें को खास महत्‍व दिया जाता था। हर किसी के काम को समज की द्ष्टि से महत्‍वपर्ण ठहराया जाता था। तब हर करीगर अपनी करीगरी पर और हर व्‍यक्ति अपने व्‍यक्तित्‍व पर नाज करता था और अपने आप को सफल मानता था।

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