मतलबी हो तुम
जब ज़रुरत पड़ती है तुम्हें
तब याद आता हूँ मैं
कभी बेवजह याद किया तुमने
नहीं...
हर वक़्त एक वजह होती है
एक दर्द,एक ज़ख्म,एक शिकवा होता है
हमेशा शिकायते होती है फिर
मन होता है तुम्हारा.. तो चले आती हो
बेवक्त...एक बेसहारे की तरह
सहमा रहता हूँ मैं हर वक्त
डर लगता है मुझे तुमसे
चुभती है तुम्हारी चुपी दिल में
जब यूँही खामोश रहना है तुम्हे
फिर क्यूँ चले आती हो मेरे पास
यही देखने ना कि...
मेरे कोरे जिस्म के घाव भरे या नहीं
नहीं अभी नही
अब भी वैसे ही है
अभी भरे नहीं
भरने लगते हैं
कागज से श्याही रिसने लगती है
लेकिन...
मैं खुद के नाखूनो से कुरेदने लगता हूं
उन्ह ज़ख्मों को जो तुमने दिये है
ताकि बने रहे
तुम्हारे निशान
उम्र भर
रुह के साथ-साथ इस जिस्म पर भी...

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