पिछले समय में देश के कई हिस्सों में पढे-लिखे बेरोजगारों के स्वतः स्फूर्त तरीके से संगठित होने-सड़कों पर
उतरने की घटनायें लगातार बढ़ती गयी हैं। अंधकारमय भविष्य को सामने देख लड़ने को तैयार हुए बेरोजगारों का जज्बा सरकार नहीं तोड़ पायीं। कोई कह सकता है कि बेरोजगारों के साथ ठेकाकर्मियों-स्कीम वर्करों की बात क्यों
की जा रही है वे तो रोजगार प्राप्त हैं। पर क्या
वास्तव में ये ठेकाकर्मी-स्कीम वर्करों को रोजगारशुदा कहा जा सकता है? नहीं। बेकारी की भारी भयावहता ही उन्हें बेहद कम वेतन पर काम करने की ओर धकेलती
है। वस्तुतः वे भी बेरोजगार-अर्द्ध बेरोजगार ही हैं।
पिछले 2-3 दशकों में उदारीकरण-वैश्वीकरण के दौर में जहां नौकरियों की तादाद घटती गयी हैं वहीं निजी शिक्षण संस्थानों की तादाद भी बढ़ती
गयी है। ये शिक्षण संस्थान बेहतर भविष्य के झूठे स्वप्न दिखा छात्रों को ठगते हैं। ऐसे में शिक्षा हासिल कर रोजगार की चाह रखने वाले नौजवानों की
तादाद बढ़ती जा रही है। पढ़े-लिखे बेरोजगारों व उनके लायक नौकरियों का गणित बुरी तरह गड़बड़ाया हुआ है। ऐसे में
मजबूरी में सरकारी नौकरी के लिए कुछ साल प्रयास करने के बाद इन बेरोजगारों की एक ठीक ठाक आबादी मोदी के
दिखाये रास्ते ठेला खोमचा लगाने या फिर फैक्टरियों में ठेके की नौकरी करने को मजबूर हो जाती है। बेरोजगारों की भारी तादाद से, उनके बढ़ते गुस्से से बेफिक्र सरकारों ने अब बेरोजगारों की भारी तादाद को भी कमायी
का धंधा बना दिया है। एक ओर ऐसे कोचिंग संस्थान खड़े हो गये हैं जो भारी प्रतियोगिता के माहौल में छात्रों-युवाओं को चूसने में जुटे हैं
वहीं दूसरी ओर ऐसे एजेण्ट भी सामने आ गये हैं जो जान पहचान-मिलीभगत-भ्रष्टाचार से नौकरी लगाने का धंधा व इसकी एवज में लाखों रुपया छात्रों-बेरोजगारों
से वसूलने लगे हैं। धंधेबाजी केवल कोचिंग-एजेण्ट ही नहीं कर रहे हैं, सरकारें भी इसमें उतर पड़ी हैं। सरकारों को पता है कि आज 10 पदों के लिए भी एक लाख आवेदन आ सकते हैं। इसलिए वो एक ही विभाग के पदों को एक
साथ निकालने के बजाय टुकड़ों में भरती है ताकि हर परीक्षा पर शुल्क के नाम पर छात्रों को लूटा जा सके। इससे आगे बढ़कर अब भरती की प्रक्रिया को काफी
समय तक लटकाये रखना, किसी भी बहाने रद्द कर नयी भर्ती प्रक्रिया शुरू करना, अदालतों में शिकायतों से भर्ती प्रक्रिया का थम जाना, पेपर आउट होने के नाम पर परीक्षा रद्द
होना कुछ ऐसी कार्यवाहियां हैं जो बेरोजगारों की जेबों
को तो ढीला कर ही रही हैं, उनके गुस्से को भी बढ़ा रही हैं।
अभी हाल में रेलवे के 1 लाख पदों की भर्ती
के लिए सरकार ने फार्म शुल्क लगभग 5 गुना बढ़ा कर 500 रुपये कर दिया तो सरकार की काफी आलोचना
हुई। तब सरकार को पीछे हटकर घोषणा करनी पड़ी कि वो शुल्क तो अगंभीर छात्रों को आवेदन से रोकने को था व जो छात्र परीक्षा देंगे उन्हें 400 रुपये वापस कर दिये जायेंगे। सरकार का बेरोजगारों को अगंभीर कहना सरकार की
मानसिकता को दिखाने को काफी है। ऐसे हालातों में
बेरोजगार सड़कों पर उतर रहे हैं। सड़कों पर उतरते वक्त अक्सर ही उनकी मांग किसी खास नौकरी को भरने आदि की होती है।
बेरोजगारों का पुलिसिया दमन झेलकर भी बार-बार सड़कों पर
उतरना दिखलाता है कि उनका धैर्य चुक रहा है।
आज जरूरत है कि बेरोजगारों को भी देशव्यापी पैमाने पर एकजुट किया जाये।
उनकी स्थानीय मांगों को उठाते हुए भी बेरोजगारी के वास्तविक कारण- पूंजीवादी व्यवस्था को उनके सम्मुख स्पष्ट किया जाये व उनके व्यवस्था विरोधी संघर्ष
खड़े किये जायें।
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