आज शिक्षक दिवस है, मतलब शिक्षा और शिक्षकों के योगदान और महत्व को समझने का दिन। देश में रहने वाले नागरिकों के भविष्य
निर्माण के द्वारा शिक्षक राष्ट्र-निर्माण का कार्य करते है। लेकिन समाज में कोई
भी शिक्षकों और उनके योगदान के बारे
में नहीं सोचता अपितु शिक्षा का पूरा तंत्र एक
बड़े व्यवसाय में तब्दील हो रहा है,
क्या हम शिक्षा और
शिक्षक की गरिमा को बरकरार रख पाए हैं?
वास्तव में पूंजीवादी
विश्व के बदलते स्वरूप और परिवेश में हम शिक्षा के सही उद्देश्य को ही नहीं समझ पा
रहे है। सही बात तो यह है कि शिक्षा का सवाल जितना मानव की मुक्ति से जुड़ा है
उतना किसी अन्य विषय या विचार से नहीं। शिक्षक हमें सिर्फ पढ़ाते ही नहीं है बल्कि
वो हमारे व्यक्तित्व, विश्वास और कौशल स्तर को भी सुधारते हैं। वो
हमें इस काबिल बनाते हैं कि हम किसी भी कठिनाई और परेशानियों
का सामना कर सकें।
एक जमाना था शिक्षक के प्रति ऐसा भाव था, यानि, छोटा सा गांव हो
तो पूरे गांव में सबसे आदरणीय कोई व्यक्ति हुआ
करता था, तो शिक्षक हुआ करता था। नहीं मास्टर जी ने बता दिया है, मास्टर जी ने कह दिया है, ऐसा एक भाव था। धीरे-धीरे
स्थिति काफी बदल गई है। उस स्थिति को पुन: प्रतिस्थापित
कर सकते हैं। एक बार देश के पूर्व राष्ट्रपति डॉ.
सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने ब्रिटेन के एडिनबरा विश्र्वविद्यालय मे भाषण देते हुए कहा
था कि शिक्षा और मानव इतिहास का संपूर्ण लक्ष्य मानव जाति की मुक्ति है। पर जब
मुक्ति का अर्थ ही बेमानी हो जाए,
उसका लक्ष्य सर्वजन
हिताय की परिधि से हटकर घोर वैयक्तिक दायरे में सिमट जाए तो मानव-मन स्व के
निहितार्थ ही क्रियाशील हो उठता है और समाज में करुणा की जगह क्रूरता, सहयोग की जगह दुराव,
प्रेम की जगह
राग-द्वेष व प्रतियोगिता की भावना ले लेती है। इन दिनों जब शिक्षा की गुणात्मकता का
तेजी से ह्रास होता जा रहा है, समाज में सहिष्णुता की भावना लगातार कमजोर पड़ती जा रही है और
गुरु-शिष्य संबंधों की पवित्रता को ग्रहण लगता जा रहा है। डॉ. राधाकृष्णन का पुण्य
स्मरण फिर एक नई चेतना पैदा कर सकता है। वह शिक्षा में मानव के मुक्ति के पक्षधर
थे। वह कहा करते थे कि मात्र जानकारियां देना शिक्षा नहीं है। करुणा, प्रेम और श्रेष्ठ परंपराओं का विकास भी शिक्षा के उद्देश्य
हैं। शिक्षा की दिशा में हमारी सोच अब इतना व्यावसायिक और संकीर्ण हो गई है कि हम
सिर्फ उसी शिक्षा की मूल्यवत्ता पर भरोसा करते हैं और महत्व देते हैं जो हमारे
सुख-सुविधा का साधन जुटाने में हमारी मदद कर सके, बाकी
चिंतन को हम ताक पर रखकर चलने लगे हैं। देश में बी.एड. महाविद्यालयों को खोलने को
लेकर जिस तरह से राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद धड़ल्ले से स्वीकृति प्रदान कर
रहा है, वह एक दुखद गाथा है। प्राय: सभी
महाविद्यालय मापदंडों की अवहेलना करते हैं। महाविद्यालय धन कमाने की दुकान बन गए
हैं और शिक्षा का अर्थ रह गया है है परीक्षा,
अंक प्राप्ति, प्रतिस्पर्धा तथा व्यवसाय। देश में यही हालत तकनीकी शिक्षा की
है जहां बिना किसी गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की गारंटी के लगातार कॉलेज खुल रहे है।
लोगों को यह एक अच्छा व्यवसाय नजर आने लगा है। आज आवश्यकता है देश में प्राचीन
समृद्ध ज्ञान के साथ युक्तिसंगत आधुनिक ज्ञान आधारित शिक्षा व्यवस्था की। देशभक्ति, स्वास्थ्य-संरक्षण,
सामाजिक संवदेनशीलता
तथा अध्यात्म-यह शिक्षा के भव्य भवन के चार स्तंभ हैं। इन्हें राष्ट्रीय शिक्षा की
नीति में स्थान देकर स्वायत्त शिक्षा को संवैधानिक स्वरूप प्रदान करना चाहिए। इन
सब उपायों से शिक्षा की चुनौतियों का मुकाबला किया जा सकता है। शिक्षा बाजार नहीं अपितु
मानव मन को तैयार करने का उदात्त सांचा है। जितनी जल्दी हम इस तथ्य को समझेंगे
उतना ही शिक्षा का भला होगा। तभी हम शिक्षक दिवस को सच्चे अर्थो में सार्थक कर
सकेंगे और डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन के अधूरे सपनों को पूरा कर पाएंगे।
आप सभी को शिक्षक दिवस की बहुत बहुत शुभकामनायें !!
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