तो क्या वो राहें अनजान है...?
जिसपर मैं चला रहा,
एक मोड़ पर मुझे मेरा हमसफर मिला था,
मिली थी वो सारी कायनात मुझे,
शायद जिसकी तलाश थी मुझे ।
वक़्त दरिया भी अजीब होता है न...!
दूर को पास और पास को दूर कर देता है,
अजीब होती है वो राहें,
जो चलती है अपनीं मंजिल की ओर,
मगर रास्ते में बिछड़ जाती है,
न जाने कितनी ही गलियों से गुज़र जाती है,
हाँ..! शायद जीस्त में जुदाई बेशुमार है,
फिर भी पाने की कोशिशों की भरमार है,
क्यूँ लगता है कि लम्हें आब-ए-चश्म बन बह जाएंगे,
निकलकर आंखों से उनके ज़मीर को भिगो जाएंगे,
क्यूँ लगता नही कि सुबह की शुरुआत उन्ही से होगी,
शाम की धुँधली भी शायद उन्ही पर ख़त्म होगी,
हैरान हूँ मैं अपने पागल सा इश्क़ पर,
पास होकर भी मुसलसल बढ़ता ही जा रहा,
जाने कहाँ तक ले जाएगा, कुछ भी इल्म नहीं,
उफ़क पर बैठे ख़ुदा, क्या दर्द तूने नवाज़े है मुझे..!
न जाने क्यूँ पास समंदर है, फिर भी प्यासे है...
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