पर्यावरणीय समृद्धि की चाहत, जीवन का विकास करती है, विकास की चाहत, सभ्यताओं का। सभ्यता को अग्रणी बनाना है, तो विकास कीजिए। जीवन का विकास करना है, तो पर्यावरण को समृद्ध रखिए। स्पष्ट है कि पर्यावरण और विकास, एक-दूसरे का पूरक होकर ही इंसान की सहायता कर सकते हैं। बावजूद इस सच के आज पर्यावरण और विकास की चाहत रखने वालों ने एक-दूसरे को परस्पर विरोधी मान लिया है।। पर्यावरण सुरक्षा की मुहिम चलाने वाले ऐसे कई संगठनों को विकास में अवरोध उत्पन््ना करने के दोषी घोषित किया जाता रहा है। दूसरी ओर, पर्यावरण के मोर्चे पर चुनौतियां ही चुनौतियां हैं। जिनका जवाब बनने की कोशिश कम, सवाल उठाने की कोशिशें ज्यादा हो रही हैं। ऐसा क्यों ?
विश्व पर्यावरण दिवस को मनाने का मुख्य उद्देश्य लोगों में पर्यावरण के प्रति जागरूकता पैदा करते हुए उनमें राजनीतिक चेतना पैदा करना और पर्यावरण की रक्षा के लिए उन्हें प्रेरित करना है। ५ जून, १९७४ 'केवल एक धरती' थीम पर पहला विश्व पर्यावरण दिवस मनाया गया और इसका मेजबान देश संयुक्त राज्य अमेरिका था।
सब जानते हैं कि बढता तापमान और बढता कचरा, पर्यावरण ही नहीं, विकास के हर पहलू की सबसे बङी चुनौती है। वैज्ञानिक आकलन है कि जैसे-जैसे तापमान बढेगा, तो बर्फ पिघलने की रफ्तार बढती जायेगी। समुद्रों का जलस्तर बढेगा। नतीजे में कुछ छोटे देश व टापू डूब जायेंगे। समुद्र किनारे की कृषि भूमि कम होगी। लवणता बढेगी। समुद्री किनारों पर पेयजल का संकट गहरायेगा। समुद्री खाद्य उत्पादन के रूप में उपलब्ध जीव कम होंगे। वातावरण में मौजूद जल की मात्रा में परिवर्तन होगा। परिणामस्वरूप, मौसम में और परिवर्तन होंगे। बदलता मौसम तूफान, सूखा और बाढ लायेगा। हेमंत और बसंत ऋतु गायब हो जायेंगी। इससे मध्य एशिया के कुछ इलाकों में खाद्यान््ना उत्पादन बढेगा। किंतु दक्षिण एशिया में घटेगा। नहीं चेते, तो खाद्यान््ना के मामले में स्वावलंबी भारत जैसे देश में भी खाद्यान््ना आयात की स्थिति बनेगी। पानी का संकट बढेगा। जहां बाढ और सुखाङ कभी नहीं आते थे, वे नये 'सूखा क्षेत्र' और 'बाढ क्षेत्र' के रूप में चिन्हित होंगे। जाहिर है कि इन सभी कारणों से मंहगाई बढेगी। दूसरी ओर मौसमी परिवर्तन के कारण पौधों और जीवों के स्वभाव में परिवर्तन आयेगा। पंछी समय से पूर्व अंडे देने लगेंगे। ठंडी प्रकृति वाले पंछी अपना ठिकाना बदलने को मजबूर होंगे। इससे उनके मूल स्थान पर उनका भोजन रहे जीवों की संख्या एकाएक बढ जायेगी। कई प्रजातियां लुप्त हो जायेंगे। मनुष्य भी लू, हैजा, जापानी बुखार जैसी बीमारियों और महामारियों का शिकार बनेगा। ये आकलन, जलवायु परिवर्तन पर गठित अंतर-सरकारी पैनल के हैं।
वैसे तो आधुनिकीकरण की वजह से पर्यावरण को प्रदूषित करने वाले कई तत्व हैं। लेकिन इसमें प्लास्टिक एक ऐसा पदार्थ है जिसकी वजह से न सिर्फ भूमि बल्कि जल और वायु प्रदूषण भी होता है और पर्यावरण को इसकी वजह से जो नुकसान होता है वो दीर्घकालीन होता है। यानी प्लास्टिक में पाए जाने वाले पदार्थो से पर्यावरण को होने वाले नुकसान की भरपाई करना लगभग नामुमकिन है। प्लास्टिक के तत्व न सिर्फ मानव स्वास्थ्य पर बुरा असर डालते हैं बल्कि पूरे पारिस्थितिक-तंत्र को नुकसान पहुंचाते हैं।
विशेषज्ञों की मानें तो प्लास्टिक की वजह से प्रदूषण फैलने की सबसे बड़ी वजह है कि हम इसका सही तरीके न इस्तेमाल करते हैं और न ही सही तरीके से इसका निपटान करते हैं। भारत में करीब ४५ फीसदी प्लास्टिक उत्पादों का सिर्फ एक बार ही प्रयोग होता है और यह सबसे बड़ी समस्या है। दूसरी ओर हवा के कारोबारी, एक ओर कार्बन क्रेडिट की बात कर रहे हैं और दूसरी ओर कनाडा में हवा अब बोतलों में बंद करके बेची-खरीदी जा रही है। कुदरत ने हमें जो कुछ मुफ्त में दिया है, आगे चलकर वह सभी कुछ बाजार में बेचा-खरीदा जायेगा; हमारे प्राण भी। क्या हम यह होने दें ? सोचें कि क्या समाधान है ?
दुनिया के देशों में कार्बन की सामाजिक कीमत, ४३ डॉलर प्रति टन का अनुमान लगाया जाता है। मुनाफा कमाने वाले औद्योगिक और वाणिज्यिक उपक्रमों से कार्बन टैक्स के रूप में इसकी वसूली की बात कही जाती है। पर्यावरण कर के रूप में भारत में भी इसकी वसूली शुरु हो चली है। यह 'प्रदूषण करो, जुर्माना भरो' के सिद्धांत पर आधारित विचार है। क्या यह समाधान है ? क्या इस समाधान के कारण लोग टैक्स भरकर, कचरा फैलाने के लिए स्वतंत्र नहीं हो जाते ? अभी भारत, कचरे को उसके स्त्रोत से दूर ले जाकर निष्पादित करने वाली प्रणालियों को बढ़ावा देने में लगा है। लोग भी सीवेज पाइपों ही विकास मान रहे हैं। इस सोच कोे बदलकर, आइये हम स्त्रोत पर निष्पादन क्षमता का विकास करे।

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